श्री हरिदास ठाकुर समाधि मंदिर

श्री हरिदास ठाकुर समाधि मंदिर

श्री हरिदास ठाकुर का अस्वस्थ मन

श्रीचैतन्य चरितामृत के सभी पाठकों ने ही श्रीनामाचार्य श्री श्रीहरिदास ठाकुर जी के निर्याण का भुवनमंगल प्रसंग पाठ किया है। एक दिन श्रीगोविन्द श्रीमन्महाप्रभु की इच्छा से श्रील हरिदास ठाकुर की भजन-स्थली में कुछ महाप्रसाद लेकर ठाकुर को देने गये। जाकर देखा कि श्रीनामाचार्य लेटकर धीरे-धीरे संख्यानाम संकीर्तन कर रहे हैं। श्रीगोविन्द ने श्रील ठाकुर हरिदास को उठकर महाप्रसाद सेवन करने को कहा। श्रील हरिदास ने कहा,- मैं आज लंघन करूँगा। अभी भी संख्या कीर्तन पूरा नहीं हुआ है, किस तरह से भोजन करूँगा? श्रीमहाप्रसाद लाये हो, उसकी भी उपेक्षा कैसे करूँगा? यह कहते हुए अल्प मात्र महाप्रसाद लेकर मुख में रख लिया ।

और एक दिन श्रीमन्महाप्रभु ने श्रील हरिदास ठाकुर के पास जाकर उनकी कुशल वार्ता पूछी, तब श्रील हरिदास ने अपने प्रभु को नमस्कार कर दीनतापूर्वक कहा, “मेरा शरीर स्वस्थ है किंतु बुद्धि तथा मन अस्वस्थ है।” कौनसी व्याधि हुई है?” यह पूछने के बाद फिर श्रीनामाचार्य ने कहा, – “संख्यानाम-कीर्तन पूरा नहीं कर पा रहा हूँ।” श्रीनामाचार्य प्रतिदिन शुद्धभाव से संख्यापूर्वक तीन लाख महामंत्र कीर्तन तथा जप करते थे।

महाप्रभु के वचन

श्रीमन्महाप्रभु ने अप्राकृत सिद्धदेह श्रील हरिदास को उनके साधन अभिनय का हास करने को कहा। और यह भी कहा- “तुमने श्रीनाम के आचार्य तथा प्रचारक के रूप में अवतीर्ण होकर श्रीनाम की महिमा का प्रचार किया है अब तुम संख्या कम करके नाम संकीर्तन करो। ”

श्री हरिदास ठाकुर की ह्रदय स्पर्षी प्रार्थना

श्रील हरिदास ने तब पत्थर को पिघला देने वाले दैन्यपूर्ण शब्दों में अपने दीन भाव से महाप्रभु की महिमा का कीर्तन कर प्रभु के निकट अपना एक अभिप्राय व्यक्त किया. –

“प्रभो ! बहुत दिनों से मेरे हृदय में एक अभिलाषा है- आपकी लीला समापन के पहले मैं आपके सामने इस देह को त्याग दूँ। आपकी अप्रकट लीला के बाद मैं और इस पृथ्वी में देह धारण करके नहीं रह पाऊँगा । हृदय में आपके श्रीचरणकमल धारण, नयन में आपका श्रीचन्द्रमुख दर्शन, और जिहा पर आपका श्रीकृष्णचैतन्य नाम उच्चारण करते हुए आपके श्रीपादपद्म के सामने मैं प्राण त्याग करूँ, मेरी यह नीच देह आपके सामने पतित हो। आपकी कृपा से मेरी यह मनोकामना अवश्य ही पूर्ण होगी।”

यह श्रीश्रील कविराज गोस्वामी प्रभु की भाषा में इस प्रकार वर्णित है (चै.च.अ. 11/31-36 ) –

एक वांछा हय मोर बहुदिन हइते ।
लीला सम्बरिबे तुमि – लय मोर चित्ते ।।
सेई लीला प्रभु मोरे कभु ना देखाइबा |
आपनार आगे मोर शरीर पड़िबा ।।
हृदये धरिमू तोमार कमल चरण ।
नयने देखिमु तोमार चाँदवदन ।।
जिहाय उच्चामि तोमार कृष्णचैतन्य’ नाम ।
एईमत मोर इच्छा – छाड़िमु प्राण ।।
मोर एई इच्छा यदि तोमार प्रासादे हय ।
एई निवेदन मोर कर दयामय ।।
एई नीच देह मोर पडुक तब आगे ।
एई वांछा-सिद्धि मोर तोमाते लागे ।।

अर्थात् दीर्घकाल से मेरी एक इच्छा रही है। हे प्रभु मेरे विचार से आप अत्यन्त शीघ्र इस भौतिक जगत से अपनी लीला समाप्त कर देंगे। मैं चाहता हूँ कि आप अपनी लीला का यह अन्तिम अध्याय मुझे नहीं दिखलायें। इसके पूर्व कि वह समय आये, मैं चाहता हूँ कि मेरा शरीर आपके सामने धराशायी हो जाये।” “मैं आपके कमलवत् चरणों को अपने हृदय में धारण करना चाहता हूँ और आपके चन्द्रमा सदृश मुखमण्डल का दर्शन करना चाहता हूँ। मेरी इच्छा है कि मैं अपनी जीभ से आपका ‘श्रीकृष्णचैतन्य नाम उच्चारण करूँ। कृपया मुझे इस तरह से शरीर छोड़ने दें । “हे अत्यन्त दयालु प्रभु यदि आपकी कृपा से ऐसा हो सके, तो कृपया मेरी इच्छा पूरी करें।” “इस नीच देह को आपके सामने गिर जाने दें। आप मेरी सारी इच्छाओं की पूर्णता को सम्भव बना सकते हैं।”

यह सुनकर श्रीमन्महाप्रभु ने कहा, “हरिदास! तुम जो इच्छा करोगे, – कृपामय श्रीकृष्ण उसे अवश्य ही पूरा करेंगे किंतु मेरा जितना भी सुख है, सब तुम्हें ही लेकर है, तुम मेरे लीला के परिकर हो, तुम मुझे छोड़कर जाओगे – क्या यह उचित है?” तब श्रील हरिदास ठाकुर ने श्रीमन्महाप्रभु के चरण पकड़ कर कहा, “प्रभो! मुझे वंचित नहीं कीजिये, मेरे जैसे अधम के प्रति आप अवश्य ही यह दया करेंगे।” – ( चै.च.अ. 11/40-42)

मोर शिरोमणि कत कत महाशय ।
तोमार लीलार सहाय कोटिभक्त हय।।
आमा-हेन यदि एक कीट मरि गेल ।
पिपीलिका मइले पृथ्वीर काँहा हानि हइल?
‘भक्तवत्सल’ तुमि मुई ‘भक्ताभास’ ।
अवश्य पूराबे, प्रभु, मोर एई आश ।।

अर्थात् “हे प्रभु ऐसे अनेक सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति एवं करोड़ों भक्त है, जो मेरे सिर पर बैठने योग्य हैं। वे सभी आपकी लीला में सहायक हैं। हे प्रभु यदि मुझ जैसा कोई तुक कीट मर भी जाये, तो कौनसी हानि जाती है? यदि एक चींटी मरती है, तो भौतिक जगत की कौनसी हानि हो जाती है ? “हे प्रभु, आप सदैव अपने भक्तों के प्रति स्नेहिल रहते हैं। मैं तो एक कृत्रिम भक्त हूँ, फिर भी मैं चाहता हूँ कि आप मेरी इच्छा पूरी करें। यही मेरी आशा है।”

श्री हरिदास ठाकुर की निर्याण लीला

दूसरे दिन प्रातः श्रीजगन्नाथदेव के दर्शन के बाद श्रीगौरहरि ने श्रीस्वरूप गोस्वामी, श्रीरायरामानन्द, श्रीसार्वभौम भट्टाचार्य, श्रीवक्रेश्वर पंडित इत्यादि भक्तों के साथ श्रीहरिदास के पास जाकर दर्शन प्रदान किया। श्रीहरिदास ठाकुर द्वारा श्रीमन्महाप्रभु तथा वैष्णवों की श्रीचरण वंदना करने पर महाप्रभु ने श्रीहरिदास की कुशलता पूछी। श्रील हरिदास ने ‘जो आज्ञा’ कहकर प्रभु के प्रश्नों का उत्तर दिया। श्रीमन्महाप्रभु ने श्रील हरिदास की कुटिया के आंगन के सामने महासंकीर्तन आरंभ कर दिया। पंडित श्रीवक्रेश्वर, श्रीस्वरूप दामोदर गोस्वामी प्रमुख प्रभु के पार्षदगण श्रीहरिदास को घेरकर श्रीनामसंकीर्तन करने लगे। श्रीरायरामानन्द, श्रीसार्वभौम भट्टाचार्य इत्यादि भक्तों के सामने श्रीमन्महाप्रभु पंचमुख होकर परम सुख से श्रीहरिदास का गुण कीर्तन करने लगे। श्रीहरिदास का गुणगान श्रवण कर भक्तगण आश्चर्यचकित हो गये। सभी भक्तों ने श्रीहरिदास के चरणों की वंदना की। श्रील ठाकुर हरिदास के निर्याण-लीला वर्णन के प्रसंग में श्रील कविराज गोस्वामी प्रभु ने कहा है (चे. च.अ. 11/53-57) –

हरिदास निजाग्रेते प्रभुरे बसाइला ।
निज नेत्र- दुई भृंगमुखपदमे दिला ।।
स्व-हृदये आनि धरि प्रभुर चरण ।
सर्वभक्त-पदरेणु मस्तक भूषण ।।
‘श्रीकृष्णचैतन्यप्रभु’ बलेन बार-बार ।

प्रभुमुख-माधुरी पिये, नेत्रे जलधार ।।
श्रीकृष्णचैतन्य शब्द करिते उच्चारण ।

नामेर सहित प्राण करिला उत्क्रामण ।।
महायोगेश्वर प्राय स्वच्छन्दे मरण ।

‘भीष्मेर निर्याण’ सबार हइल स्मरण ।।

अर्थात् हरिदास ठाकुर ने श्रीचैतन्य महाप्रभु को अपने सामने बैठाया और तब भौंरे के तुल्य अपने दोनों नेत्र महाप्रभु के मुखमण्डल पर टिका दिये। उन्होंने श्रीचैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों को अपने हृदय पर धारण किया और तब समस्त भक्तों के चरणों की धूलि लेकर अपने मस्तक पर लगाई। उन्होंने श्रीकृष्णचैतन्य के पवित्र नाम का बारम्बार उच्चारण किया। जब उन्होंने महाप्रभु के मुख की मधुरता का पान किया, तो उनके नेत्रों से लगातार अश्रु बहने लगे। श्रीकृष्णचैतन्य का नाम उच्चारण करते-करते उन्होंने प्राण त्याग दिये और अपना शरीर छोड़ दिया। हरिदास ठाकुर की अद्भुत इच्छा-मृत्यु देखकर हर व्यक्ति को भीष्म के मरण का स्मरण हो आया, क्योंकि यह मृत्यु महान योगी की मृत्यु जैसी थी।

महाप्रभु द्वारा समाधी

भक्तों ने महाकीर्तन कोलाहल आरंभ कर दिया। श्री श्रीमहाप्रभु ने प्रेमानन्द में विहल होकर श्रीहरिदास के अप्राकृत देह को गोद में लेकर श्रीनामाचार्य की कुटिया के आंगन में नृत्य आरम्भ कर दिया। सभी भक्त भी प्रभु के आवेश में प्रभावित होकर नृत्य-कीर्तन करने लगे। श्रील स्वरूपदामोदर गोस्वामी प्रभु द्वारा कुछ देर बाद श्रीमन्महाप्रभु से निवेदन किये जाने पर भक्तगण श्रील हरिदास ठाकुर को पालकी में स्थापित कर कीर्तन करते हुए समुद्र की ओर ले गये। इस समय का एक सजीव चित्र श्रील कविराज गोस्वामि प्रभु की तुलिका में इस तरह से अंकित हुआ है (चै.च.अ. 11/62-72)-

हरिदास ठाकुरे तबे विमाने चड़ाइया ।
समुद्रे लइया गेला कीर्तन करिया ।।
आगे महाप्रभु चलेन नृत्य करिते करिते ।
पाछे नृत्य करे वक्रेश्वर भक्तगण साथे ।।
हरिदासे समुद्र-जले स्नान कराइला ।
प्रभु कहे, समुद्र एई ‘महातीर्थ हइला’ ।।
हरिदासेर पादोदक पिये भक्तगण ।
हरिदासेर अंगे दिला प्रसाद चंदन ।।
डोर, कड़ार, प्रसाद, वस्त्र अंगे दिला ।
बालुकार गर्त करि ताहे शोयाइला ।।
चारिदिके भक्तगण करेन कीर्तन ।
वक्रेश्वर पंडित करेन आनन्दे नर्तन ।।
‘हरिबोल’, ‘हरिबोल बलेन गौरराय ।
आपनि श्रीहस्ते बालु दिला तर गाय ।।
तारे बालु दिया ऊपरे पिण्डा बाँधाइला ।
चौदिके पिण्डेर महा-आवरण कइला ।।
तबे महाप्रभु कइला कीर्तन, नर्तन ।
हरिध्वनि- कोलाहले भरिल भुवन ।।
तबे महाप्रभु सब भक्तगण संगे ।
समुद्रे करिला स्नान जलकेलि रंगे ।।
हरिदासे प्रदक्षिण करि आइल सिंहदारे ।
हरिकीर्तन- कोलाहल सकल नगरे ।।

अर्थात् तब हरिदास ठाकुर के शरीर को एक वाहन पर चढ़ाया गया, जो विमान जैसा था और सामूहिक कीर्तन के साथ उसे समुद्र ले जाया गया। श्रीचैतन्य महाप्रभु शोभायात्रा के आगे-आगे नृत्य कर रहे थे और वक्रेश्वर पण्डित अन्य भक्तों के साथ उनके पीछे-पीछे कीर्तन करते हुये नृत्य कर रहे थे। श्रीचैतन्य महाप्रभु ने हरिदास ठाकुर के शरीर को समुद्र में स्नान कराया और घोषित किया, “आज से यह समुद्र महान तीर्थस्थल बन गया है।” हर एक ने उस जल को पिया, जो हरिदास ठाकुर के चरणों का स्पर्श कर चुका था और सभी ने जगन्नाथ जी के चन्दन प्रसाद का हरिदास ठाकुर के शरीर पर लेप किया। बालू में गड्ढा खोदकर उसमें हरिदास ठाकुर का शरीर रख दिया। तब भगवान् जगन्नाथ का प्रसाद-यथा उनकी रेशमी रस्सियाँ, चन्दन लेप भोजन तथा वस्त्र- उनके शरीर के ऊपर रखा गया। भक्तों ने शरीर के चारों ओर सामूहिक कीर्तन किया और वक्रेश्वर पण्डित ने आनन्दित होकर नृत्य किया। श्रीमहाप्रभु ने अपने दिव्य हाथों से हरिदास ठाकुर के शरीर को ‘हरि बोल’ ‘हरि बोल’ कीर्तन करते हुये बालू से ढक दिया। भक्तों ने हरिदास ठाकुर के शरीर को बालू से ढक्कर उसी स्थान पर एक चबूतरा बना दिया। इस चबूतरे को चारों ओर से चारदीवारी द्वारा सुरक्षित कर दिया गया। श्रीचैतन्य महाप्रभु ने इस चबूतरे के चारों ओर नृत्य और कीर्तन किया और जब हरिनाम का कोलाहल हुआ, तो सारा ब्रह्माण्ड उस शब्द से भर गया। संकीर्त्तन के बाद श्रीचैतन्य महाप्रभु ने अपने भक्तों के साथ समुद्र में तैरकर तथा हर्षित होकर जलक्रीड़ा करके स्नान किया। हरिदास ठाकुर की समाधि की प्रदक्षिणा करके श्रीचैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ मन्दिर के सिंहद्वार पर गये सारे नगर ने संकीर्तन में भाग लिया और कोलाहल से सारा नगर गुंजायमान हो उठा।

समाधि की अवस्थिति

सपार्षद श्रीगौरहरि ने स्वयं अपने हाथों से श्रीनामाचार्य को समाधि प्रदान कर जो समाधि पीठ का निर्माण किया था, श्रीनीलाचल में नील समुद्र के तट पर वह समाधि पीठ आज भी अवस्थित है। कहा जाता है कि स्वर्गद्वार नामक तट-भूमि का विशाल स्थान पहले श्मशान भूमि रूप में परिणत था । इसीलिए उस स्थान पर आज भी श्मशान महावीर की श्रीमूर्ति देखी जाती है। यह विस्तृत श्मशान भूमि लोकावास के विस्तार के कारण धीरे-धीरे संकीर्ण होकर पूर्व की ओर हट गयी है। श्री श्रील हरिदास ठाकुर के समाधि-पीठ के निकट श्रीगोपालगुरु गोस्वामी प्रभु, उनके शिष्य श्रीध्यानचन्द्र गोस्वामी तथा बहुत सारे गौड़ीय वैष्णवों के समाधि-पीठ अभी भी विराजमान हैं। कहा जाता है कि इसी श्मशान भूमि में श्रीचैतन्यमण्डली के महाभागवतगण भजन किया करते थे। किंतु शुद्ध भक्तों से सुना जाता है कि श्रीमन्महाप्रभु के स्वहस्त द्वारा प्रदत्त श्रीनामाचार्य के समाधि-पीठ के संस्पर्श लाभ के लिए ही गौडीयगणों ने वहाँ भजन किया है। उन लोगों ने तांत्रिकों की तरह श्मशान को भजन के अनुकूल स्थान के रूप में वरण नहीं किया है। सातासन’ में समस्त श्रीगौरपार्षदों ने भजन किया है अथवा प्रसिद्ध सिद्ध महात्मा ॐ विष्णुपाद श्रीश्री सच्चिदानन्द भक्तिविनोद ठाकुर इत्यादि सभी ने ही श्री श्रील ठाकुर हरिदास की स्मृति में विभावित होने के लिए ही उनके समाधि-पीठ के निकट अपना-अपना भजन स्थान निर्धारित किया था। कई लोगों ने श्रीश्रील भक्तिविनोद ठाकुर जी को समाधि-पीठ ग्रहण करने का अनुरोध किया था। किंतु श्रील भक्तिविनोद ठाकुर श्रीगुरुवर्ग के पीठस्थान को विषय के अन्तर्गत वस्तु के रूप में ग्रहण करने को तैयार नहीं हुए थे। इसीलिए उन्होंने श्रीहरिदास ठाकुर की समाधि के पीछे रहकर दूर से समाधि- पीठ की सेवा की थी।

इसी समाधि पीठ के पीछे, समुद्र के तट पर, जगद्गुरु श्री श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती ठाकुर प्रभुपाद जी के अंतरंग पार्षद श्रीगौड़ीय वेदान्त समिति के संस्थापक आचार्य नित्यलीलाप्रविष्ट ॐ विष्णुपाद अष्टोत्तरशतश्री श्रीमद् भक्ति प्रज्ञान केशव गोस्वामी महाराज जी के प्रियतम शिष्य श्रीगौड़ीय वेदान्त समिति के प्राक्तन आचार्य नित्यलीलाप्रविष्ट ॐ विष्णुपाद अष्टोत्तरशतश्री श्रीमद् भक्ति वेदान्त वामन गोस्वामी महाराज जी ने अपने गुरुवर्ग के मनोऽभीष्ट को पूर्ण करने के लिए “श्रीनीलाचल गौड़ीय मठ” की स्थापना की है।