श्रीगोविन्दस्वामी तीर्थ  

इसका वर्तमान नाम श्रीगोविन्दजीका मन्दिर है। प्राचीन नाम गोमाटीला है।

प्रसङ्ग

श्रीरूप गोस्वामी सेवा कुञ्जके अन्तर्गत श्रीराधादामोदर मन्दिरके पीछे छोटी-सी भजनकुटीमें साधन-भजन करते थे। वहींपर रहकर श्रीमन् महाप्रभुके आदेशसे वे भक्तिरसामृतसिन्धु, उज्ज्वलनीलमणि आदि जैसे भक्ति- ग्रन्थोंका प्रणयन करते थे। वे महाप्रभुके आदेशसे श्रीवज्रनाभके द्वारा प्रतिष्ठित श्रीगोविन्द विग्रहको प्रकटित करना चाहते थे। वे प्रतिदिन पञ्चकोसी वृन्दावनकी परिक्रमा भी करते थे। एक दिन परिक्रमा करते समय श्रीगोविन्द विग्रहकी चिन्ता करते-करते बड़े अधीर हो गये तथा यमुनातटपर एक वृक्षके नीचे बैठकर श्रीगोविन्द दर्शनके लिए अनुतप्त होकर रोदन करने लगे। उसी समय एक सुन्दर ब्रजवासी बालक भी परिक्रमा करते-करते उधर से निकला। उसने श्रीरूप गोस्वामीको पेड़के नीचे रोदन करते हुए देखा तो रोनेका कारण पूछा। पहले तो श्रीरूप गोस्वामीने कुछ नहीं कहा। किन्तु, बालकके बार-बार अनुरोध करनेपर उन्होंने अपने हृदयकी व्यथा कह सुनाई । ब्रजवासी बालक श्रीरूप गोस्वामीको साथ लेकर गोमा टीलाके निकट कहने लगा – देखो! इस टीलेपर इसी स्थानमें प्रतिदिन पूर्वाह्नके समय एक गैया आती है । यहीं खड़ी होकर अपने थनोंके दूधसे इस स्थानको सींच जाती है। मैं समझता हूँ कि यहींपर तुम्हारी अभिलाषा पूर्ण होगी-ऐसा कहकर देखते-देखते वह बालक अन्तर्धान हो गया।

श्रीरूप गोस्वामी बालकके रूप और मधुर बोलीका स्मरणकर मूर्च्छित हो गये। चेतना होनेपर आस पासके ब्रजवासियोंको बुलाकर बड़ी सावधानीसे उस स्थानको खुदवाया। कुछ नीचे तक खोदनेपर ही वहाँ कोटि मन्मथ- मन्मथ सुन्दर श्रीगोविन्दजी प्राप्त हुए। बड़े समारोहके साथ श्रीगोविन्दजीका अभिषेक किया गया। यह संवाद बहुत ही शीघ्र सर्वत्र फैल गया। अब श्रीगोविन्ददेवके दर्शनोंके लिए लोगोंकी भीड़ उमड़ने लग गई।

वृन्दावनके ईश्वर वृन्दावनेश्वर

श्रीगोविन्द देव ही श्रीवृन्दावनके ईश्वर वृन्दावनेश्वर’ हैं। स्कन्द, पद्म एवं वाराह आदि पुराणोंमें उनको वृन्दावनका राजराजेश्वर कहा गया है। वृन्दावनमें श्रीगोविन्ददेव ही आराध्य देवता हैं। चैतन्यचरितामृतमें इस प्रकारका उल्लेख है-

वृन्दावने कल्पवृक्ष सुवर्ण-सदन
महायोगपीठ ताहां रत्नसिंहासन  ।
ताते बसि आछेन साक्षात् ब्रजेन्द्रनन्दन
श्रीगोविन्द नाम-साक्षात्मन्मथमदन  ।।

और भी –

श्रीमद्वृन्दारण्यकल्पद्रुमाधः, श्रीमद्रत्नागारसिंहासनस्थौ  ।
श्रीमद्राधा-श्रीलगोविन्ददेवौ प्रेष्ठालिभिः  सेव्यमानौ स्मरामि  ।।

श्रीमद्भागवतम्   (६/८/२० )  – “माँ   केशवो   गदया   प्रातरव्याद्   गोविन्द   आसङ्गवमात्तवेणुः”    टीका    च “तौ    हि   मथुरावृन्दावनयोः   सुप्रसिद्ध – महायोगपीठयोस्तत्तन्नाम्नैव   सहितो   प्रसिद्धौ   आत्तवेणुरिति   विशेषेणा गोविन्दः   श्रीवृन्दावनदेव   एवः   तत्सहपाठात्   केशवोऽपि   मथुरानाथ   गोपालपूर्वतापन्याम् –   “तमेकं   गाविन्दं सच्चिदानन्दविग्रहम्”   इत्यादि।

उर्ध्वाम्नाये-

गोपाल  एव  गोविन्दः  प्रकटाप्रकटः  सदा
वृन्दावने  योगपीठे  स  एव  सततं  स्थितः ।। 

असौ   युगचतुष्केऽपि  श्रीमद्वृन्दावनाधिपः ।
पूजितो  नन्दगोपाद्यैः  कृष्णेनापि  सुपूजितः ।।

अथर्ववेदे -“गोकुलारण्ये मथुरामण्डले वृन्दावनमध्ये सहस्रदलमध्येऽष्टदलकेशरे गोविन्दोऽपि श्यामः द्विभुजो” इत्यादि।

स्कन्दे –

गोविन्दस्वामि  नामात्र  वसत्यर्च्चयत्मिकोऽच्युतः ।
गंधर्वैरप्सरोभिश्च   क्रीड   मानः   स   मोदते ।।

इत्यादि बहुग्रंथेषु प्रसिद्धानि वचनानि सन्ति
ब्रजभक्तिविलासमें भी कहा गया है – 

वृंदादेवीसमेताय  गोविन्दाय  नमे  नमः ।
लोककल्मषनाशाय  परमात्मस्वरूपिणे  ।। (ब्र.भ.वि.)

इतिहास

श्रीरूप गोस्वामीसे पूर्व श्रीधाम वृन्दावनमें श्रीकृष्णविग्रहके साथ श्रीराधिकाके विग्रहकी स्थिति नहीं सुनी जाती। श्रीरूप गोस्वामीके द्वारा श्रीगोविन्द देवके विग्रहकी पुनः प्रतिष्ठा हुई। सुयोगसे उसी समय पुरीधाममें जगन्नाथजीके मन्दिरमें चक्रबेड़ नामक स्थानपर श्रीराधिकाजीका एक विग्रह विराजमान था। सभी लोग उस श्रीराधाविग्रहकी लक्ष्मीजीके रूपमें पूजा करते थे। महाराज प्रतापरुद्रके पुत्र पुरुषोत्तम जानाको श्रीमती राधिकाने स्वप्नादेशमें कहा- मैं लक्ष्मी नहीं हूँ, मैं ब्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्णकी प्रियतमा राधा हूँ। मैं वृन्दावनमें श्रीगोविन्ददेवके प्रकट होनेकी प्रतीक्षा कर रही थी। अब वे प्रकट हो गये हैं। तुम सावधानीके साथ मुझे वृन्दावनमें श्रीगोविन्ददेवके निकट भेज दो। उन्होंने वैसा ही किया । इसलिए तत्कालीन गोस्वामियोंने इस श्रीराधाविग्रहको श्रीगोविन्ददेवके वाम भागमें पधराया। अनन्तर श्रीगोविन्दजी श्रीमती राधिकाको पाकर श्रीराधागोविन्दके नामसे विख्यात हुए ।

स्वयं श्रीचैतन्य महाप्रभुने काशीश्वर ब्रह्मचारी नामक अपने परिकरके द्वारा श्रीगौरगोविन्द नामक अपना स्वरूप विग्रह वृन्दावनमें भेजा था। वही मूर्ति अब गोविन्द मन्दिरके दक्षिणमें पास ही विराजमान है।

१५९० ई. में श्रीरघुनाथभट्ट गोस्वामीके शिष्य जयपुरके महाराजा मानसिंहने अपने गुरुदेवकी प्रेरणासे लाल पत्थरोंके द्वारा सात मंजिलका एक बृहत् मन्दिर बनाया । १६७० ई. में अत्याचारी मुगल सम्राटके द्वारा इस मन्दिरका ध्वंस हुआ। उसके ऊपर वाले चार मंजिल तोड़ दिये गये। नीचेका भाग तोड़ते समय दिल्लीमें अकस्मात् अशुभ समाचार सुनकर वह लौट गया । मन्दिरका निचला भाग बच गया। मन्दिर ध्वंस होनेसे पूर्व ही श्रीगोविन्दजी तथा गौड़ीयोंके उपास्य दूसरे विग्रह जयपुर पधार गये थे। १७४८ ई. में उक्त विशाल मन्दिरके पास ही श्रीगोविन्द देवके प्रतिभू विग्रहकी स्थापना हुई । १८१९ ई. में श्रीनन्दकुमार वसुके द्वारा वर्तमान मन्दिरका निर्माण किया गया। इस मन्दिरमें श्रीगोविन्द देव और उनके वाम भागमें श्रीराधिकाजी विराजमान हैं। इस समय प्राचीन गोविन्ददेव प्रिया राधिकाके साथ जयपुरके राजभवनके निकट विराजमान हैं।

गोविन्द देव के दर्शन से सावधान

श्रील रूप गोस्वामी व्यंग्योक्तिके द्वारा श्रीगोविन्ददेवका दर्शन करनेके लिए निषेध करते हुए कह रहे हैं- यदि तुम्हें स्त्री, पुत्र और बन्धु बान्धवोंके साथ अपने जीवनमें रङ्गरेलियाँ मनानेकी तनिक भी इच्छा हो तो मेरी बातोंको मानो। कभी भी वृन्दावनमें केशी घाटके समीप भूलसे भी मत जाना। वहाँ त्रिभङ्ग ललित मुद्रामें कुछ मुस्कराते हुए, भृकुटी ताने, कुछ तिरछी नजरोंसे देखते हुए श्रीहरि गोविन्द विग्रहके रूपमें खड़े हैं। उनके अङ्गोंपर पीताम्बर झिलमिला रहा है, वनफूलोंकी मनोहारिणी माला तथा नवपल्लवोंका गुच्छ सुशोभित हो रहा है। अहो ! समस्त अनर्थोंकी मूलाधार वंशी उनके अधर पल्लवोंपर विराजित है, सिरपर मयूरपिच्छ उनकी शोभामें और भी चार चाँद लगा रहा है। जो एकबार भी अपने नेत्रोंसे इस गोविन्द विग्रहका दर्शन कर लेता है, वह कभी भी अपने घर नहीं लौटता। उस संसारी गृहीका सर्वनाश हो जाता है। इसलिए हे संसारी जीव ! खबरदार, केशी घाटकी ओर कभी भी मत जाना। अन्यथा कोई अनहोनी विपदकी संभावना है।