टोटा गोपिनाथ मन्दिर

श्रीटोटा-गोपीनाथ मन्दिर

यमेश्वर-टोटा

श्रीजगन्नाथदेव के श्रीमंदिर के दक्षिण-पश्चिम कोण में समुद्र के रेतीले पथ पर ‘यमेश्वर-टोटा’ नामक स्थान है। उत्कल भाषा में ‘टोटा’ या ‘टोटा’ शब्द का अर्थ-उद्यान है। श्रीजगन्नाथदेव के द्वारपाल या दीवान स्वरूप पँच शिव विग्रहों में श्रीयमेश्वरदेव प्रमुखतम हैं। श्रीयमेश्वर मंदिर के निकट दक्षिण में यमेश्वर टोटा या उद्यान था उसी उद्यान में ही श्रीमन्महाप्रभु ने श्रील गदाधर पंडित गोस्वामी प्रभु को निवास स्थान प्रदान किया था ( चै.च.म. 15/183) – 

गदाधर-पंडित रहिला प्रभुर पासे ।
यमेश्वर प्रभु जरे कराइला आवासे ।।

अर्थात् श्रीगदाधर पण्डित श्रीमन्महाप्रभु के पास ही रह गये, श्रीमन्महाप्रभु ने उन्हें यमेश्वर में आवास स्थान प्रदान किया।

महाप्रभु का टोटा जाना एवं व्रज की स्मृति

श्रीगौरसुन्दर, श्रील गदाधर को मिलने तथा उनसे श्रीमद्भागवत की व्याख्या श्रवण करने के लिए प्रतिदिन यमेश्वर टोटा जाते थे। टोटा दर्शन में श्रीमन्महाप्रभु को श्रीकुण्ड स्थित कुंज की स्मृति, उसके सामने चटक-पर्वत दर्शन में श्रीगोवर्धन की स्मृति, टोटा के सामने विशाल वटवृक्ष के दर्शन में वंशीवट की स्मृति तथा समुद्र-दर्शन में यमुना की स्मृति का उदय होता था। श्रीमन्महाप्रभु, कई बार यमेश्वर टोटा जाते थे. उसकी जानकारी श्रीचैतन्य चरितामृत (अ. 4/116) में मिलती है-

ज्यैष्ठमासे प्रभु यमेश्वर-टोटा आइला ।
भक्त अनुरोधे तांहा भिक्षा जे करिला ।।

अर्थात् ज्येष्ठ मास (मई-जून) में श्रीचैतन्य महाप्रभु यमेश्वर (शिवजी) के उद्यान में आये और वहाँ पर भक्तों के अनुरोध पर प्रसाद ग्रहण किया।

महाप्रभु द्वारा श्रीगोपीनाथ जी का प्राकट्य 

कहा जाता है कि एक दिन श्रीमन्महाप्रभु यमेश्वर-टोटा में आकर “मेरे प्राणनाथ कहाँ है?” – यह कहकर महाभाव-विभोर होकर आवेश में हाथ से रेत हटाने लगे। श्रील गदाधर पण्डित श्रीमन्महाप्रभु के हाथ पकड़कर उस प्रकार रेत हटाने का कारण पूछने लगे। तब श्रीमन्महाप्रभु ने श्रील गदाधर से कहा, “गदाधर! यदि इस स्थान में कोई निधि प्राप्त होती हैं, तो क्या उसे तुम ग्रहण करोगे?” श्रील गदाधर ने कहा- ‘प्रभो! आपके द्वारा प्रदत्त निधि को निश्चय ही मस्तक का भूषण बनाऊँगा।” तब श्रीमन्महाप्रभु ने कहा- “देखो, यहाँ मेरे प्राणनाथ के शिखर का अग्रभाग देखा जा रहा है, तुम स्पर्श करो।” वास्तव में श्रीगदाधर ने एक पत्थर के श्रीविग्रह का शिरोभाग स्थित शिखर देखा एवं उत्कंठित चित्त से भक्तों के साथ उस श्रीविग्रह को रेत से निकालकर ऊपर उठा लिया। श्रीमन्महाप्रभु ने श्रीगदाधर को उस विग्रह को श्रीगोपीनाथ जी के श्रीविग्रह रूप में मानकर वंशीवट के तट में, नीलसमुद्र के तीर पर यमुना तट समझकर स्थापित करके नित्य सेवा करने को कहा। इस मोहनी श्रीगोपीनाथ-विग्रह की बात श्रीचैतन्यलीला के व्यास ठाकुर श्रीवृन्दावन ने भी इस प्रकार वर्णन की है (चै.भा.अ. 7/114-16)-

गदाधर भवने मोहन गोपीनाथ ।
आछेन, जेहेन नन्दकुमार साक्षात् ।।
आपने चैतन्य ताने करियाछेन कोले।
अति पाषण्डीओ से विग्रह देखि भुले ।।
देखि श्रीमुरली-मुख अंगेर भंगिमा ।
नित्यानन्द-आनन्द-अश्रुर नाहि सीमा ।।

अर्थात् गदाधर के भवन में परम मोहन गोपीनाथ साक्षात् नन्द कुमार की भाँति विराजमान हैं। स्वयं श्रीचैतन्य ने उन्हें गोद में धारण किया है। अतिशय पाखण्डी भी उस विग्रह को देखकर अपने आपको भूल जाते हैं। श्रीमुरलीधर के मुख तथा अंगों की भंगिमाओं को देखकर नित्यानन्द प्रभु में आनन्दाश्रुओं की कोई सीमा नहीं रही।

 

एक दिन श्रीनित्यानन्द प्रभु अचानक यमेश्वर-टोटा में पहुँच गये। श्रील गदाधर पण्डित तब श्रीगोपीनाथ जी के सामने श्रीमद्भागवत का पाठ कर रहे थे। श्रीनित्यानन्द प्रभु के आने की खबर पाने के साथ ही श्रील गदाधर पण्डित श्रीमद्भागवत पाठ छोड़कर तुरंत ही श्रीनित्यानन्द प्रभु के निकट गये एवं दोनों एक-दूसरे को गले लगाकर आनन्द से क्रन्दन करने लगे। दोनों प्रभुओं के श्रीअंग में ही प्रेम के विकार प्रकटित हो गये। भक्तगण इसे देखकर चारों ओर से उन्हें घेरकर आनन्द में अश्रुपात करने लगे। दोनों प्रभु कुछ समय में स्थिर होकर एक ही आसन पर बैठकर श्रीचैतन्यमंगल-संकीर्तन में रत हो गये। श्रीगदाधर पण्डित ने श्रीनित्यानन्द प्रभु को भिक्षा के लिए निमंत्रण किया। श्रीनित्यानन्द प्रभु श्रीगदाधर पण्डित के श्रीगोपीनाथ के भोग के लिए एक मन सूक्ष्म चावल तथा एक सुंदर रंगीन वस्त्र लेकर आये थे। उन्होंने दोनों सेवा उपकरण श्रीगदाधर के हाथ में अर्पण किये। (चै.भा.अ. 7/128-36)

श्रील गदाधर ने स्वयं बगीचे से साग तोड़कर उसके द्वारा गौरप्रिय साग, सुकोमल इमली के पत्तों को पीसकर समुद्र के खारे पानी से एक प्रकार का अम्लव्यंजन एवं श्रीनित्यानन्द द्वारा लाये गये सूक्ष्म चावल का अन्न प्रस्तुत कर श्रीगोपीनाथ को भोग प्रदान किया। ठीक उसी समय श्रीगीरसुन्दर कहीं से ‘हरे कृष्ण कृष्ण’ कहते हुए अचानक ही वहाँ पहुँचकर श्रीगदाधर को पुकारने लगे। श्रीगदाधर की प्रीति से आकृष्ट होकर श्रीगौरसुन्दर बिना न्यौते के उपस्थित हुए थे महाप्रभु ने श्रीगदाधर के भोजन की प्रशंसा तथा श्रीगोपीनाथ के प्रसादान्न की वंदना कर अत्यंत प्रीति के साथ उसका भोजन किया। श्रीनित्यानन्द तथा श्रीअद्वैत प्रभु ने भी श्रीमन्महाप्रभु के बगल में बैठकर श्रीगदाधर द्वारा तैयार भोग को ग्रहण किया था, बाद में भक्तों ने अवशेष (महाप्रसाद) लूट लिया था। टोटा गोपीनाथ के प्रांगण में भक्त तथा भगवान् की यह लीला हुई थी ।

प्रसन्न श्रीमुखे हरे कृष्ण कृष्ण’ बलि’ ।
विजय हइला गौरचन्द्र कुतूहली ।।
‘गदाधर, गदाधर डाके गौरचन्द्र ।
संभ्रमे गदाधर वन्दे पदद्वन्द्व ।।
हासिया बलेन प्रभु-केन गदाधर!
आमि कि ना हई निमंत्रणेर भीतर?
आमि त तोमरा दुई हइते भिन्न नई ।
ना दिलेओ तोमरा, बलेते आणि लई ।।
नित्यानन्द द्रव्य, गोपीनाथेर प्रसाद।
तोमार रंधन – मोर इथे आछे भाग ।।
-(चै. भा.अ. 7/142-46)

अर्थात् (उसी समय) प्रसन्न श्रीमुख से ‘हरे कृष्ण कृष्ण’ कहते हुये कुतूहली गौरचन्द्र ने शुभागमन किया। गदाधर, गदाधर, कहकर गौरचन्द्र पुकारने लगे। सम्भ्रम के साथ गदाधर ने युगल चरणों की वन्दना की । हँसकर प्रभु कहने लगे क्यों गदाधर! क्या में निमन्त्रितों में से नहीं हूँ? मैं तो तुम दोनों से भिन्न नहीं हूँ। तुम दोनों के न देने पर भी मैं बलपूर्वक ग्रहण करता हूँ। नित्यानन्द के द्रव्य, गोपीनाथ का प्रसाद और तुम्हारे रन्धन में मेरा अधिकार है।”

एक दिन श्रीमन्महाप्रभु ‘यमेश्वर टोटा’ में श्रीगदाधर पंडित के पास जा रहे थे, उसी समय एक देवदासी सुमधुर स्वर में गुर्जर-रागिणी में ‘श्रीगीतगोविन्द’ की श्रीकृष्णोक्ति का गान कर रही थी। दूर से वह गान सुनने के साथ ही महाप्रभु को प्रेमावेश हो गया। स्त्री या पुरुष, कौन वह गान कर रहा है, उसका ध्यान दिये बिना ही महाप्रभु प्रेमावेश में उस गायिका की ओर दौड़ पड़े। रास्ते में बहुत सारी कंटीली झाडीयाँ की बाड़ थी, उस ओर ध्यान नहीं देकर महाप्रभु तेजगति से चलने लगे। शरीर में कांटे चुभने पर भी प्रेम में आविष्ट प्रभु कुछ भी नहीं जान सके। इसे देखकर गोविन्द महाप्रभु के पीछे-पीछे भागे । गायिका देवदासी मात्र अल्प दूरी पर थी लेकिन महाप्रभु दौड़ रहे थे, यह देखकर गोविन्द ने महिला का गाना है यह बात उच्चारण करते हुए महाप्रभु को पकड़ कर गोद में ले लिया। ‘महिला’ शब्द सुनते ही महाप्रभु को बाहरी दशा (सुध) प्राप्त हुई। महाप्रभु ने तब उस दिशा से लौटते हुए कहा (चै.च.अ. 13/85) –

गोविन्द, आजि राखिला जीवन ।
स्त्री- परश हइले आमार हइत मरण ।।

अर्थात् “हे गोविन्द, तुमने मेरा जीवन बचा लिया। यदि मैं स्त्री का शरीर छू लेता, तो अवश्य मर गया होता।

पंडित श्रीवल्लभ भट्ट श्रील गदाधर का अनुग्रह लाभ करने के लिए ‘यमेश्वर-टोटा में श्रीगोपीनाथ जी के पास आते थे। जब श्रीवल्लभ भट्ट महाशय श्रीमन्महाप्रभु को श्रीकृष्णनाम का अर्थ समझाने के समय उपेक्षित हुए थे, तब नीलाचल स्थित श्रीगौरभक्तगण भी श्रीवल्लभ भट्ट महाशय के विचारों का आदर नहीं कर सके थे। इसी समय वल्लभ भट्ट ने यमेश्वर टोटा में श्रील गदाधर पंडित के निकट आकर श्रील गदाधर को कृष्णनाम की व्याख्या श्रवण करने की प्रार्थना की। तब श्रील गदाधर ने कहा (चै. च.अ. 7/94) –

अन्तर्यामी प्रभु जानिवेन मोर मन ।
ताँरे भय नाहि किछु, विषम ताँ र गण ।।

अर्थात् श्रीचैतन्य महाप्रभु जन-जन के हृदय में विद्यमान है, अतः वे निश्चय ही मेरे मन की बात जान लेंगे। इसलिए मुझे उनसे भय नहीं है। किन्तु उनके संगी अत्यन्त आलोचना-पटु हैं।

श्रीपाद वल्लभ भट्ट श्रीबालगोपाल मंत्र में वात्सल्य रस के उपासक थे। श्रील गदाधर पंडित गोस्वामी प्रभु की संगति के फलस्वरूप भट्टपाद का मन बदल गया। वे किशोर-गोपाल की उपासना में आकर्षित हो गये। तब भट्टपाद ने श्रील गदाधर पंडित गोस्वामी प्रभु से मंत्र ग्रहण तथा भजन शिक्षा के लिए बार-बार आवेदन किया था श्रील पंडित गोस्वामी ने कहा – “मैं श्रीगौरसुन्दर के अधीन हूँ, उनकी आज्ञा के बिना मैं स्वतंत्र रूप से कुछ भी नहीं कर सकता हूँ। तुम जो मेरे पास आते हो, इसी से ही महाप्रभु मुझे बुरा-भला कहते हैं।” कुछ दिनों के बाद श्रीवल्लभ भट्ट के प्रति श्रीगौरसुन्दर सुप्रसन्न हुए। श्रीगौरहरि तथा श्रीगदाधर शक्तिमान तथा शक्ति रूप में नित्य अविच्छेद्य संबंध-युक्त है। इसीलिए श्रीमन्महाप्रभु भक्त समाज में ‘गदावर प्राणनाथ’ तथा ‘गदाई गौरांग के नाम से प्रसिद्ध हैं।

एक दिन श्रीगदाधर पंडित द्वारा पार्षदों सहित श्रीगौरहरि को अपने स्थान में भिक्षा के लिए निमंत्रण करने पर वहाँ श्रीवल्लभ भट्ट ने श्रीगौरहरि की आज्ञा लेकर श्रीपंडित गोस्वामी के निकट किशोरगोपाल-मंत्र में दीक्षा प्राप्त की।

कहा जाता है कि श्रील गदाधर पंडित गोस्वामी प्रभु अथवा उनके अधीनस्थ मामु-ठाकुर (चै.च.आ. 12/80) अत्यंत वृद्ध होकर झुक गये थे। तब उन्होंने श्रीगोपीनाथ के मस्तक तथा श्रीमुखमण्डल तक श्रृंगार सेवा करने में असमर्थ होने पर सेवाविहीन होकर प्राण परित्याग करने का संकल्प कर लिया। इसलिए भक्तवत्सल श्रीगोपीनाथ सेवक की सेवा ग्रहण करने के लिए खड़े अवस्था से दोनों चरणों को कुछ संकुचित (चौकड़ी लगा) कर अब बैठे हुए हैं। इसी तरह की मुद्रा में ही श्रीगोपीनाथ श्रीविग्रह वर्तमान में यमेश्वर टोटा में प्रकाशित हैं।

श्रीटोटागोपीनाथ जी के श्रीअंग में श्रीगौरहरि प्रविष्ट हुए हैं, ऐसा सुना जाता है।

श्रीगोपीनाथ श्रीविग्रह के प्रकट तथा पदमासन में उपवेशन लीला के बाद श्रीगोपीनाथ-श्रीविग्रह एवं श्रीगोपीनाथजी के बायें तथा दायें की ओर क्रमशः कृष्णवर्णा श्रीराधा तथा श्रीललिता के अधिष्ठान के संबंध में निम्नलिखित सिद्धांत का वर्णन है— श्रीराधाजी के भावकांति-विभावित श्रीगौरसुन्दर नीलाचल में चटक गोवर्धन तथा उनके निकटवर्ती वन को व्रजवन तथा नीलसागर को यमुना के रूप में अनुभव कर महाभाव में श्रीकृष्ण की खोज करते-करते अपने अन्तःकृष्ण स्वरूप को और स्वर्णपंचालिका में छिपाकर नहीं रख सके; बाहर भी गौरांग राधा-कृष्णमयी हो उठे। अभिन्न-ललिता श्रीस्वरूपदामोदर भी श्रीगौरहरि की महाभाव-लीला का परिपोषण कर श्रीकृष्णभावाविष्ट होकर कृष्णवर्णा एवं त्रिभंग सुठाम में वंशी वादन करने लगे। इसीलिए श्रीटोटा-गोपीनाथ जी की दायीं ओर त्रिभंग-भंगिमा में वंशीवादन करते हुए कृष्णवर्णा श्रीललिता जी का विग्रह देखा जाता है। विप्रलंभ-विग्रह श्रीगौरहरि सर्वत्र श्रीकृष्ण का अनुसंधान करके भी जब तृप्त नहीं हो सके, तब उन्होंने श्रीकृष्ण निश्चय ही तट की स्वर्ण-बालुका (रेत) के भीतर छिपे हैं, ऐसा समझकर अपने हाथों से रेत को हटाते हुए अपने हृदय के भाव-विग्रह स्वरूप श्रीराधिका- श्रीललिता सहित श्रीगोपीनाथ जी के विग्रह का आविष्कार किया। सिंधु- तट के पुष्प उद्यान में गोपीभाव में तन्मय सपार्षद श्री श्रीगौरहरि के गणों में श्रीमद्भागवत (10/32/14) में वर्णित इस उक्ति का आस्वादन करते हुए ललित-पदविन्यास में श्रीगोपीनाथ पद्मासन में उपविष्ट हुए थे-

तत्रोपविष्टो भगवान् स ईश्वरो, योगेश्वरान्तहर्दि कल्पितासनः ।
चकास गोपीपरिषद्गतोऽर्चित-स्त्रैलोक्यक्ष्म्येकपदं वपुर्द्धत् ।।

अर्थात् जिन भगवान् कृष्ण के लिए बड़े-बड़े योगेश्वर अपने हृदयों में आसन की व्यवस्था करते हैं वही कृष्ण गोपियों की सभा में आसन पर बैठ गये। उनका दिव्य शरीर, जो तीनों लोकों में सौन्दर्य तथा ऐश्वर्य का एकमात्र धाम है, गोपियों द्वारा कृष्ण की पूजा करने पर जगमगा उठा।

– इसीलिए पद्मासन-विग्रह-श्रीगोपीनाथ जी एवं कृष्णवर्णा श्रीराधा- ललिता श्रीविग्रह का प्राकट्य श्रीटोटा-गोपीनाथ मन्दिर में देखा जाता है।

श्रीगदाधर जी के अप्रकट होने के बाद श्रीमामू ठाकुर श्रीटोटा गोपीनाथ जी के सेवक-अधिकारी हुए थे। श्रीमन्महाप्रभु इन्हें ‘मामा’ कहकर पुकारते थे. इसलिए वे ‘मामू ठाकुर’ के नाम से प्रसिद्ध हैं। पूर्व बंगाल तथा उड़ीसा में ‘मामा’ को ‘मामू’ कहा जाता है। इनका वास्तविक नाम श्रीजगन्नाथ चक्रवर्ती है। ये श्रीशचीमाता के पिता श्रीनीलाम्बर चक्रवर्ती के भतीजे थे। इनका निवास स्थान फरीदपुर ज़िले के मगडोबा ग्राम में था।

पहले श्रीटोटा गोपीनाथ की कोई संपत्ति नहीं थी। महाराज श्रीप्रतापरुद्र श्रील गदाधर पंडित को टोटा गोपीनाथ जी की सेवा के लिए पर्याप्त भूसंपत्ति प्रदान करना चाह रहे थे। किंतु श्रील गदाधर ने कहा था, मैं राज अनुग्रह स्वीकार नहीं करूँगा, माधुकरी भिक्षा के द्वारा सेवा निर्वाह करूँगा। इसके बाद जब श्रील मामू ठाकुर के ऊपर श्रीटोटा गोपीनाथ जी की सेवा का भार अर्पित हुआ तब वे भी श्रील गदाधर पंडित गोस्वामी प्रभु का आदर्श अनुसरण कर राज अनुग्रह स्वीकार करने को तैयार नहीं हुए। मामू ठाकुर के परवर्ती किसी सेवायत ने उस आदर्श से पीछे हटकर राजा का दान ग्रहण किया। तब से श्रीटोटा-गोपीनाथ की दसबाटी (टोटा-गोपीनाथ से मंगलाघाट की ओर 4 मील दूर) भूसंपत्ति हुई।

श्रीबलदेव आर्विभाव उत्सव, श्रीजन्माष्टमी, श्रीनन्दोत्सव, श्रीराधाष्टमी, श्रीगोवर्धन उत्सव (अन्नकूट), श्रीगदाधर पंडित गोस्वामी का तिरोभाव उत्सव, श्रीदोल उत्सव, श्रीगौरजन्मोत्सव इत्यादि उत्सव यहाँ पारम्परिक रूप से मनाये जाते हैं।