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अवस्थिति
पुरी रेलवे स्टेशन की पूर्व दिशा में एवं श्रीमंदिर से लगभग एक कोस दूर ‘बलगण्डिनला’ के ‘बांकिमुहाणा’ के तट पर चक्रतीर्थ अवस्थित है।
वैशिष्टय
इसी स्थान पर ही श्रीदारुब्रह्म तैरते हुए पहुँचे थे। इस स्थान में एक पत्थर के सुदर्शन चक्र एक वेष्टनी में पूजित हुआ करते हैं। इस चक्र के निकट ही एक कुण्ड है। इस स्थान में सब समय जल रहता है तथा फलकामी कर्मी लोग यहाँ श्राद्ध आदि किया करते हैं।
निकट ही समुद्रसैकत पर्वत के ऊपर बारह वर्ष से निर्मित एक नये मंदिर में श्रीचक्रनारायण चतुर्भुज विष्णुविग्रह प्रकाशित हैं। श्रीचक्रनारायण बीच में, उनके पश्चिम भाग में श्रीलक्ष्मीनारायण तथा पूर्व में श्रीअनन्त- नारायण हैं। इन तीनों विष्णु विग्रहों के सीने में स्वरूप शक्ति श्रीलक्ष्मीदेवी विराजमान हैं।
बेड़ि-हनुमान
निकट ही और एक मंदिर में जंजीर से बंधे श्रीहनुमान ‘बेड़ि-हनुमान’ नाम से प्रसिद्ध हैं। कहा जाता है कि समुद्र कहीं आगे बढ़ न सके, इस पर नज़र रखने के लिए श्रीजगन्नाथदेव ने श्रीहनुमान जी को प्रहरी के रूप में यहाँ अवस्थान करने को कहा था किंतु श्रीबजरंगजी लड्डू खाने का लोभ रोक नहीं पाकर प्रभु के उस सेवा कार्य में लापरवाही बरतते हुए ही अयोध्या चले गये थे। इससे श्रीजगन्नाथदेव ने हनुमान जी को अयोध्या से लाकर उस स्थान पर जंजीर से बांध कर रखा है। ये ‘दरिया- महावीर’ के नाम से भी विख्यात हैं, क्योंकि ये चक्रतीर्थ दरिया के निकट अवस्थित है ।
श्वेतगंगा
अवस्थिति
स्वर्गद्वार से श्रीमंदिर की ओर जाने के रास्ते में बायीं तरफ तथा श्रीमंदिर के दायीं ओर एक गली के अंदर ‘श्वेतगंगा’ तीर्थ या कुण्ड अवस्थित है। श्वेतगंगा के चारों ओर संगमरमर की सीढ़ियाँ हैं। उसके दक्षिण तट पर प्रसिद्ध ‘श्रीगंगामाता मठ’ अवस्थित है।
इतिहास
उत्कलखंड में वर्णित है— त्रेतायुग में श्वेत- नामक एक राजा श्रीजगन्नाथदेव के परम भक्त थे। उन्होंने महाराज श्रीइन्द्रद्युम्न द्वारा प्रवर्तित प्रणाली के अनुसार प्रतिदिन भोग की व्यवस्था की थी। एक दिन प्रातः उन्होंने श्रीजगन्नाथदेव की पूजा के समय उपस्थित होकर सामने देवप्रदत्त हज़ारों उपहारों को दर्शन करते हुए मन ही मन सोचा कि -देवगण दिव्य उपहारों के द्वारा जिनका अर्चन करने में समर्थ नहीं होते हैं, वे श्रीजगन्नाथदेव क्या मेरे जैसे साधारण मरणशील-व्यक्ति का उपहार ग्रहण करते हैं?
इस प्रकार सोचते-सोचते राजा श्रीजगन्नाथदेव को प्रणाम तथा स्तव कर श्रीमंदिर के दरवाजे पर बैठ गये। उस समय उन्होंने साक्षात् देखा कि श्रीलक्ष्मीदेवी राजा द्वारा प्रदत्त षड्र-सपूर्ण अन्न आदि श्रीजगन्नाथदेव को परोस रही हैं एवं श्रीजगन्नाथ तथा उनके विजय विग्रहगण उसका संतोषपूर्वक भोजन कर रहे हैं। इस अद्भुत दृश्य को देखकर राजा अपने को धन्य समझने लगे। श्वेतराजा बहुत दिनों तक श्रीजगन्नाथदेव की आराधना में निमग्न थे। उससे श्रीजगन्नाथदेव ने अत्यंत प्रसन्न होकर श्वेत-राजा को वर प्रदान किया कि वे अक्षयवट तथा सागर के मध्यवर्ती मुक्तिक्षेत्र में आदि-अवतार श्रीमत्स्य भगवान् के सामने ‘श्वेत-माधव’ के नाम से विख्यात होंगे। उक्त श्वेतमाधव के नामानुसार इस सरोवर का नाम ‘श्वेतगंगा’ हुआ है। इस स्थान में भक्त श्वेतमाधव तथा भगवान् श्रीमत्स्यमाधव के श्रीविग्रह एवं सरोवर के तट पर नवग्रह की मूर्तियाँ हैं।
सातासन-मठ
समुद्र के तट पर श्रील ठाकुर हरिदास की समाधि के निकट तथा नित्यलीला प्रविष्ट ॐ विष्णुपाद श्रील भक्तिविनोद ठाकुर की भक्ति-कुटी से सटे उत्तर की ओर ‘सातासन-मठ’ स्थित है। श्रील स्वरूप दामोदर गोस्वामी प्रभु श्रीस्वरूप-रूपानुगवर, श्रील रघुनाथदास गोस्वामी प्रभु पंडित श्रील जगदानन्द गोस्वामी प्रभु-प्रमुख गौरपार्षदों ने इस सातासन मठ में अवस्थान कर भजन किया था। जब श्रीगौरसुन्दर ने अपने पार्षदों के साथ श्रील ठाकुर हरिदास को समाधि प्रदान करने के लिए समुद्र के तट पर आगमन किया, तब उन्होंने श्रीसातासन-मठ तथा उसके निकटवर्ती क्षेत्र में विश्राम तथा कीर्तन आदि किया था।
‘भजनकुटी’ के द्वार पर ठाकुर द्वारा रचित निम्नलिखित श्लोक की खुदाई की हुई है,
गौरप्रभोः प्रेमविलासभूमौ निष्किंचनो भक्तिविनोद-नामा ।
कोऽपि स्थितो भक्तिकुटीर कोष्ठे स्मृत्वानिशं नामगुणं मुरारेः ।।
कहा जाता है कि अति प्राचीनकाल में सप्तर्षि श्रीक्षेत्र के समुद्र तट पर निर्जन भजन करने के लिए आसपास संलग्न स्थान में सात आसनों की रचना की गई। उसी से ही सातासन मठ’ का नामकरण हुआ है। एक दिन महाराज श्रीइन्द्रद्युम्न ने समुद्र स्नान करने के लिए आकर देखा कि सात ऋषि समुद्र तट पर निर्जन क्षेत्र में अवस्थान करके श्रीहरिनाम कीर्तन कर रहे हैं। राजा द्वारा ऋषियों के निकट उपस्थित होकर उनका परिचय पूछने पर सप्तर्षि उनकी बातों पर ध्यान नहीं देकर हरिकीर्तन करने लगे।
इधर श्रीइन्द्रद्युम्न ने उस रात को स्वप्न में देखा कि मानो श्रीजगन्नाथदेव राजा के निकट उपस्थित होकर कह रहे हैं, “तुम इन सप्तर्षियों को भजन के उपयोगी भूमि तथा प्रतिदिन महाप्रसाद भेज देना।” तद्नुसार श्री इन्द्रद्युम्न ने ‘जिराकन्दि नामक एक मौजा एवं सप्तर्षि के लिए प्रतिदिन सात हांडी तथा सात कड़ाही महाप्रसादान्न एवं व्यंजन आदि भेजने की व्यवस्था कर दी। सप्तर्षि ने राजा द्वारा प्रेषित सनद लौटा कर कहा कि – “हमें भूमि की कोई आवश्यकता नहीं है, राजा की इच्छा हो तो महाप्रसाद भेज सकते हैं।’ सप्तर्षि निष्किंचन भजनानन्दी वैष्णव थे। किंतु बाद में सप्तर्षियों के भजन स्थान पर श्रीविग्रह की सेवा तथा मठ की स्थापना की गयी तब राजा द्वारा प्रदत्त जमींदारी को सेवा के लिए ग्रहण किया गया था।
सातासन मठ जब श्रीगौडीयवैष्णवगणों के भजन स्थान के रूप में ग्रहीत हुआ, तब या उसके पहले से ही वह निम्नलिखित सात नामों से परिचित हुआ था,-
- बड़ा आसन – इस आसन में श्रीराधा दामोदर के श्रीविग्रह अवस्थित थे। कहा जाता है कि यहाँ श्रील स्वरूप दामोदर गोस्वामी प्रभु भजन करते थे।
- कदलीपट्का-आसन – इस स्थान पर प्रसिद्ध सिद्ध महात्मा श्रील स्वरूपदास बाबाजी महाराज भजन करते थे। उनके संबंध में श्रील भक्तिविनोद ठाकुर ने अपने ‘स्वलिखित जीवनी में इस तरह से लिखा है. – “महात्मा श्रीस्वरूपदास बाबाजी एक अपूर्व वैष्णव हैं। सारा दिन ही कुटीर के अंदर भजन करते थे। संध्या के समय प्रांगण में आकर तुलसी को दण्डवत् प्रणाम कर नामगान करते हुए नाचते तथा रोते रहते थे। कोई-कोई उस समय उन्हें एक मुट्ठी महाप्रसाद देता था । भूख मिटाने तक वे उसे स्वीकार करते थे, ज्यादा नहीं लेते थे। कोई कोई उस समय श्रीचैतन्य भागवत इत्यादि ग्रंथ पाठ कर उन्हें सुनाते थे। बाबाजी महाशय फिर रात 10 बजे अपनी कुटिया में जाकर भजन करते थे। अंधेरा रहते-रहते समुद्र तट पर जाकर हाथ मुँह धोकर स्नान आदि करते थे। कोई वैष्णव कहीं उनका कोई कार्य न कर दें, उसी आशंका से अकेले ही सारा काम करते थे। वे दोनों आँखों से दृष्टिहीन थे, किस तरह से रात रहते ही समुद्र में दैनिक स्नान आदि करते थे. वह महाप्रभु ही जानते है वे एक सिद्धपुरुष थे, इसमें कोई संदेह नहीं है। उन्हें किसी तरह की विषय चिंता नहीं थी। मैं संध्या के बाद किसी किसी दिन उनका चरण दर्शन करने जाता था। बहुत मीठे शब्दों में वे आने वाले लोगों के साथ बातचीत करते थे।” (श्रीभक्तिविनोद ठाकुर द्वारा लिखित स्वलिखित जीवनी 141-42 पृष्ठ)
श्रील स्वरूपदास बाबाजी महाशय के संबंध में हमने और भी सुना है कि कई बार स्थानीय उच्च अधिकारी उनके लिए महाप्रसाद ले आने पर ये कहते थे कि, “तुम लोग मुझे अंग्रेजी महीने की पहली दूसरी, तीसरी तारीख तक महाप्रसाद दोगे इसके बाद और नहीं दोगे। क्योंकि बाबाजी महाशय जानते थे कि उन्हें महीने के शुरुआत में जो धन प्राप्त होता है, वह उनका उचित तरीके से उपार्जित मासिक वेतन है, किंतु बाद में जो मिलता है वह घूस या गलत तरीके से प्राप्त काला धन है।
अब कदली-पट्का’ आसन की भूमि में महात्मा श्रीस्वरूपदास बाबाजी महाशय की समाधि वर्तमान समय में अवस्थित है। वे जिस स्थान में भजन करते थे, अब उस स्थान का अस्तित्व रहने पर भी, दुख की बात है कि उस स्थान की उचित रूप से मर्यादा की रक्षा नहीं होती है मठ के वर्तमान सेवायतगण उस स्थान का उपयोग अन्य कार्य के लिए कर रहे हैं।
- श्रीगिरिधारी-आसन – इस स्थान पर श्रीगिरिधारी का श्रीविग्रह विराजित है; यही श्रील जगदानन्द पंडित गोस्वामी प्रभु का आसन या भजन-स्थान है। भक्तिकूटी से सटे पूर्व दिशा में यह आसन अवस्थित है।
- श्रीगोंफा आसन या श्रीगुम्फा-आसन – इस स्थान पर वैष्णवगण भजन करते थे। भजनगुफा के नाम से ही इस आसन का नामकरण है।
- श्रीमदनमोहनदेव आसन – इस स्थान पर श्रीमदनमोहनदेव अधिष्ठित हैं। कुछ लोगों का कहना है कि इस स्थान पर रघुनाथदास गोस्वामी प्रभु भजन करते थे। और कुछ लोग ‘श्रीगिरिधारी-आसन’ को ही श्रील रघुनाथदास गोस्वामी प्रभु का भजन आसन कहा करते हैं।
- श्रीकृष्ण-बलराम-आसन – यहाँ श्रीकृष्ण-बलराम का श्रीविग्रह अवस्थित है। यह खंज-श्रीभगवान् आचार्य का भजन स्थान है।
- श्रीश्यामसुन्दरदेव-आसन – यहाँ श्रीश्यामसुन्दर का श्रीविग्रह अधिष्ठित है।
One thought on “चक्रतीर्थ, श्वेतगंगा एवं सातासन-मठ”
Bahut hi darshaniy sthal hai ham bahut baar gaye jagannath ji par kabhi ye jaan hi nahi paye , aap ka bahut aabhar mante hai , hari bol dandvat pranam sabhi guru vaishnavon ko.
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